द्रष्टा ही दृश्य है।

हमारे जीवन के सारे कर्म में अनुभव में एक ज्ञाता दृष्टा विचारक अनुभव कर्ता होता है। जो अपने भीतर ज्ञान , अनुभव, विचार को इकट्ठा करता रहता है। जो विधायक और निषेध के स्वरूप में होता है। हमारी यह सारी प्रक्रिया गलत (मिथ्या है) हमें इसे मूल रूप से समाप्त करना होगा ऐसा तभी होगा जब हम बोध पूर्ण होंगे और इस बोध के क्षण में विचारक ही विचार है। ज्ञाता ही ज्ञेय है। दृष्टा ही दृश्य है। अनुभव कर्ता ही अनुभव का विषय है।
जब तक मैं विचार कर रहा हूं, जान रहा हूं, देख रहा हूं ,अनुभव कर रहा हूं, तब तक मैं कुछ बनने में लगा हूं। तब तक द्वैत रहेगा ज्ञाता और ज्ञेय ,दृष्टा और दृश्य, विचारक और विचार, अनुभव कर्ता और अनुभव, इन द्वैत में अलग-अलग प्रक्रिया चलती है। वहां एकत्व् अखंडता होने के बजाय एक केंद्र होगा स्वयं में कुछ होने का या न होने का इन द्वैत के बीच सतत प्रयत्न कर्म चलता रहता है। यह गलत प्रक्रिया है हम इन द्वैत के बीच एक सेतु बनाते रेहेते हैं…
इन मिथ्या प्रक्रिया से हमें मुक्त होना होगा जब तक इन सारे द्वैत के बीच विभाजन है तब तक एक मिथ्या प्रक्रिया जारी रहेगी इस प्रक्रिया में ही हमारा बेड़ागर्क किया है।
उदाहरण के लिए इसे ऐसा समझे
मैं क्रोधी हूं। ” मैं ” और “क्रोध” दो अलग-अलग अवस्थाएं नहीं है। केवल एक ही स्थिति है। वह है क्रोध यदि मुझे एहसास हो कि मैं क्रोधी हूं तो क्या होता है? “मैं” क्रोधी ना होने का प्रयत्न करता हूं चाहे इन प्रयत्न का कारण धार्मिक हो यह प्रयत्न सदा एक छोटे से दायरे में ही होता है। जब मैं कुछ और गहराई से बारीकी से देखता हूं तो मुझे पता चलता है कि प्रयत्न करने वाला ही क्रोध का कारण है। वह स्वयं क्रोध ही है। अलग अलग अस्तित्व रखने वाला ना तो कोई” में” है, और न “क्रोध” है। वहां केवल एक ही चीज है और वह है क्रोध यदि मुझे इसका अहसास हो कि मैं क्रोधी हूं क्रोध से अलग कोई द्रष्टा नहीं है। जो क्रोधी हो ,बल्कि “में” स्वयं ही क्रोध हूं तो हमारा समूचा प्रश्न ही बिल्कुल भिन्न हो जाएगा तब हमारा प्रयास विनाशकारी नहीं होगा।
यदि पूरी तरह से बस क्रोध ही है ना कि “मैं” जो कि क्रोध करता है। यदि “मैं ” ही क्रोध हूं ,तो ऐसी हालत में क्या होता है ? उस हालत में एकदम अलग ही प्रक्रिया देखने को मिलती है, और समस्या का रूप ही बदल जाता है ,और यह रूप ही सर्जन सील है।
जिसमें अधिपत्य जमाने वाले का अथवा अधिक या कम बनने वाले “में” का कोई वजूद नहीं होता तो हमें इस अवस्था में आना ही होगा ऐसी अवस्था में प्रयत्न का कर्ता नहीं होता ,यह कोई शाब्दिक समस्या नहीं है ,और ना ही कोशिश करके उस अवस्था को समाप्त करने का कोई सवाल उठता है। यदि आप ऐसा कुछ करते हैं ,तो आप इस से चूक जाएंगे महत्व यह देख लेने का है कि प्रयत्न करने वाला और प्रयत्न का लक्ष्य एक ही है।
यह सब समझने के लिए अलग बोध एवं सतर्कता की आवश्यकता होती है। यदि इसे हम प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा समझ सके तो आप देखेंगे कि एक पूर्णतया नूतन अवस्था अभिव्यक्त होती है।

श्री अनिल स्वामी
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Nice lines,This is a true